21 September 2018

एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे

(श्री गोपालदास नीरज के कविता‘‘जीवन नही मरा करता‘‘ से अभिप्रेरित)

लुका-लुका के रोवइयामन, कान खोल के सुन लौ रे ।
फोकट-फोकट आँसु झरइया, बात मोर ये गुन लौ रे ।।
हार-जीत सिक्का कस पहलू, राखे जीवन हर जोरे ।
एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।।

सपना आखिर कहिथें काला, थोकिन तो अब गुन लौ रे ।
आँसु सुते जस आँखी पुतरी,  मन मा पलथे सुन लौ रे ।।
टुटे नींद के जब ओ सपना, का बिगड़े हे तब भोरे ।
एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।।

काय गँवा जाथे दुनिया मा, जिल्द ल बदले जब पोथी ।
रतिहा के घोर अंधियारी, पहिरे जब घमहा धोती ।।
कभू सिरावय ना बचपन हा, एक खिलौना के टोरे ।
एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।।

कुँआ पार मा कतका मरकी, घेरी-बेरी जब फूटे ।
डोंगा नदिया डूबत रहिथे, घाट-घठौंदा कब छूटे ।।
डारा-पाना हा झरथे भर,  घाम-झांझ कतको झोरे ।
एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।।

काहीं ना बिगड़य दर्पण के, जब कोनो मुँह ना देखे ।
धुर्रा रोके रूकय नहीं गा, कोखरोच रद्दा छेके ।।
ममहावत रहिथे रूख-राई, भले फूल लव सब टोरे ।
एकोठन सपना के टूटे, मरय न जीवन हर तोरे ।।

-रमेश चौहान

17 March 2018

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामना

नूतन संवत्सर उदित,  उदित हुआ नव वर्ष  ।
कण-कण रज-रज में भरे,  नूतन-नूतन हर्ष ।।
नूतन नूतन हर्ष, शांति अरु समता लावे ।
विश्व बंधुत्व भाव, जगत भर में फैलावे ।।
नष्ट करें उन्माद, आज मिश्रित जो चिंतन ।
जागृत हो संकल्प, गढ़े जो भारत नूतन ।।

-रमेश चौहान

14 March 2018

शिक्षित

शिक्षित होकर देश में, लायेंगे बदलाव ।
जाति धर्म को तोड़ कर, समरसता फैलाव ।।
समरसता फैलाव, लोग देखे थे सपने ।
ऊँच-नीच को छोड़, लोग होंगे सब अपने ।।
खेद खेद अरू खेद, हुआ ना कुछ आपेक्षित ।
कट्टरता का खेल, खेलते दिखते शिक्षित ।।

04 November 2017

काठी के नेवता

काठी के नेवता

कोने जानय जिंनगी, जाही कतका दूर तक ।
बेरा उत्ते बुड़ जही, के ये जाही नूर तक ।।

टुकना तोपत ले जिये, कोनो कोनो ठोकरी ।
मोला आये ना समझ, कइसे मरगे छोकरी ।।

अभी अभी तो जेन हा, करत रहिस हे बात गा ।
हाथ करेजा मा धरे, सुते लमाये लात गा ।।

रेंगत रेंगत छूट गे, डहर म ओखर प्राण गा ।
सजे धजे मटकत रहिस, मारत ओहर शान गा ।।

देख देख ये बात ला, मैं हा सोचॅव बात गा ।
मोर मौत पक्का हवय, जिनगी के सौगात गा ।

मोला जब मरने हवय, मरहूॅ मैं हा शान ले ।
जइसे मैं जीयत हॅवव, तुहर मया के मान ले ।।

भेजत हवॅव मैं हा अपन, अब काठी के नेवता ।
दिन बादर ला जान के, आहू बनके देवता ।।

अपने काठी के खबर, मैं हा आज पठोत हंव।
जरहूं सब ला देख के , सपना अपन सजोत हंव ।।

25 October 2017

कवि मनोज श्रीवास्तव (घनाक्षरी छंद)

घोठा के धुर्रा माटी मा, जनमे पले बढ़े हे
नवागढ़ के फुतकी, चुपरे हे नाम मा ।
हास्य व्यंग के तीर ला, आखर-आखर बांध
आघू हवे अघुवाई, संचालन काम मा ।
धीर-वीर गंभीर हो, गोठ-बात पोठ करे
रद्दा-रद्दा आँखी गाड़े, कविता के खोज मा ।
घोठा अउ नवागढ़, बड़ इतरावत हे
श्यामबिहारी के टूरा, देहाती मनोज मा ।।
-रमेश चौहान


11 October 2017

बेरोजगारी (सवैया)

नदिया-नरवा जलधार बिना, जइसे अपने सब इज्जत खोथे ।
मनखे मन काम बिना जग मा, दिनरात मुड़ी धर के बड़ रोथे ।।
बिन काम-बुता मुरदा जइसे, दिनरात चिता बन के बरथे गा ।
मनखे मन जीयत-जागत तो, पथरा-कचरा जइसे रहिथे गा ।।

सुखयार बने लइकापन मा, पढ़ई-लिखई करके बइठे हे ।
अब जांगर पेरय ओ कइसे, मछरी जइसे बड़ तो अइठे हे ।।
जब काम -बुता कुछु पावय ना, मिन-मेख करे पढ़ई-लिखई मा
बन पावय ना बनिहार घला,  अब लोफड़ के जइसे दिखई मा ।।

पढ़ई-लिखई गढ़थे भइया, दुनिया भर मा करमी अउ ज्ञानी ।

हमरे लइका मन काबर दिखते,  तब काम-बुता बर मांगत पानी ।
चुप-चाप अभे मत देखव गा,  गुण-दोष  ल जाँचव पढ़ई लिखई के ।

लइका मन जानय काम-बुता, कुछु कांहि उपाय करौ सिखई के ।।

30 August 2017

हे गणनायक देव गजानन

हे गणनायक देव गजानन
(मत्तगयंद सवैया)

हे गणनायक देव गजानन
राखव राखव लाज ल मोरे ।
ये जग मा सबले पहिली प्रभु
भक्तन लेवन नाम ल तोरे ।
तोर ददा शिव शंकर आवय
आवय तोर उमा महतारी ।।
कोन इहां तुहरे गुण गावय
हे महिमा जग मा बड़ भारी ।

राखय शर्त जभे शिवशंकर
अव्वल घूमय सृष्टि ल जेने ।
देवन मा सबले पहिली अब
देवन नायक होहय तेने ।।
अव्वल फेर करे ठहरे प्रभु
सृष्टिच मान ददा महतारी ।
कोन इहां तुहरे गुण गावय
हे महिमा जग मा बड़ भारी ।।

काम बुता शुरूवात करे बर
होवय तोर गजानन पूजा ।
मेटस भक्तन के सब विध्न ल
विघ्नविनाशक हे नहि दूजा ।।
बुद्धि बने हमला प्रभु देवव
हो मनखे हन मूरख भारी ।
कोन इहां तुहरे गुण गावय
हे महिमा जग मा बड़ भारी ।
-रमेश चौहान

16 August 2017

पानी पानी अब चिहरत हस

नदिया छेके नरवा छेके, छेके हस गउठान ।
पानी पानी अब चिहरत हस, सुनय कहां भगवान ।।

डहर गली अउ परिया छेके, छेके सड़क कछार ।
कुँवा बावली तरिया पाटे, पाटे नरवा पार ।।
ऊँचा-ऊँचा महल बना के, मारत हवस षान ।
पानी पानी अब चिहरत हस, सुनय कहां भगवान ।।

रूखवा काटे जंगल काटे, काटे हवस पहाड़ ।
अपन सुवारथ सब काम करे, धरती करे कबाड़ ।।
बारी-बखरी धनहा बेचे, खोले हवस दुकान ।
पानी पानी अब चिहरत हस, सुनय कहां भगवान ।।

गिट्टी पथरा अँगना रोपे, रोपे हस टाइल्स ।
धरती के पानी ला रोके, मारत हस स्टाइल्स ।।
बोर खने हस बड़का-बड़का, पाबो कहिके मान ।
पानी पानी अब चिहरत हस, सुनय कहां भगवान ।।
-रमेश चौहान

//हे जीवन दानी, दे दे पानी//

//हे जीवन दानी, दे दे पानी//
(चवपैया छंद)
हे करिया बादर, बिसरे काबर, तै बरसे बर पानी ।
करे दुवा भेदी, घटा सफेदी, होके जीवन दानी ।।
कहूं हवय पूरा, पटके धूरा, इहां परे पटपर हे ।
तरसत हे प्राणी, मांगत पानी, कहां इहां नटवर हे ।।

हे जीवन दानी, दे-दे पानी, अब हम जीबो कइसे ।
धरती के छाती, खेती-पाती, तरसे मछरी जइसे ।।
पीये बर पानी, आँखी कानी, खोजय चारो कोती ।
बोर कुँआ तरिया, होगे परिया,  कहां बूंद भर मोती ।।

26 June 2017

स्व. त्रिलोक सिंह खुराना

पर कारज  के  नाम म, देइस  परान छोक ।
शान नवागढ़ के रहिस,  नाम रहिस तिरलोक ।।
नाम  रहिस  तिरलोक,  बड़े छोटे  सब जानय ।
रहिस आदमी नेक, गा़व के मनखे मानय ।
करया। समाजिक काम, भरत ओ हा चारज ।
उद्घोषक हर मंच, करय साहित्यक  कारज ।।
-रमेश चौहान

04 May 2017

अपने घर मा खोजत हावे

अपने घर मा खोजत हावे, कोनो एक ठिकाना ।
छत्तीसगढ़ी भाखा रोवय, थोकिन संग थिराना ।।

सगा मनन घरोधिया होगे, घर के मन परदेशी ।
पाके आमा निमुवा होगे, निमुवा गुरतुर देशी ।।

अपने घर के नोनी-बाबू, आने भाषा बोलय ।
भूत-प्रेत के छांव लगे कस, पर के धुन मा डोलय ।।

अपन ठेकवा मा लाज लगय, पर के भाये दोना ।
दूध कसेली धरय न कोनो, करिया लागय सोना ।।

सरग म मनखे कबतक रहिही, कभू त आही नीचे ।
मनखे के जर धरती मा हे, लेही ओला खीचे ।।

‘स्वच्छता के निहितार्थ एवं व्यवहारिक पक्ष‘‘


भारत के प्राचीन संस्कृति सदैव सामाजिक सारोकार से जुड़ी रही किन्तु आधुनिकता के अंधी दौड़ में व्यक्तिनिष्ठ जीवनषैली का विकास होने लगा सामाज के प्रति सामूहिक दायित्व क्षीण प्रतित होने लगा ।  जहां पहले सामाजिक सरोकार व्यक्ति-व्यक्ति के मनो-मस्तिश्क में था वहीं अब सामाजिक दायित्व कुछ सामाजिक संगठन (NGO)एवं राज्य तथा केन्द्र सरकार के कंधो पर प्रतित होने लगा । ‘स्वच्छता‘ एक मानसिक संस्कृति है न कि कोई प्रायोजित अभियान ।  भारत के प्राचीन ग्रामिण परिवेष का अध्ययन करें तो पता चलता है ‘स्वच्छता‘ ग्रामीण जीवन शैली का अभिन्न अंग रहा है । गांव में जीवन का शुरूवात ही सूर्योदय के साथ सफाई से हुआ करता था ।  प्रत्येक घर के महिलाएं अपने-अपने धरों के साथ-साथ गलियों की भी सफाई किया करती थीं । गोबर पानी से गलियों में छिटा देना यही वह संस्कृति है ।  अपने घर के कुड़े करकट को प्रतिदिन इक्ठठा कर गांव के बाहर घुरवा (कुड़े का गड्डा) में इकत्र कर खाद बनाया करते थे । प्रत्येक घर में यह कार्य होने से गांव की सफाई प्रतिदिन स्वभाविक रूप से हो जाया करती थी ।
खुले में शौच को कभी भी कुसंस्कृति अथवा गंदगी के कारक के रूप में नही देखा गया जैसे आज प्रचारित किया जा रहा है । इससे प्रश्न उठता है कि क्या हमारे पूर्वज इस बात से अनजान थे अथवा आज के परिस्थिति में खुले में शौच गंदगी का कारण है ? दोनों परिस्थिति पर दृष्टिपात किया जाये तो एक बात स्पष्ट होता है यह परिस्थिति जन्य है पहले प्रत्येक गांव में एकाधिक तालाब हुआ करते थे तालाब से लगे विषाल खाली भू-भाग हुआ करता था । गांव में चिन्हाकित उस स्थल पर ही गांव के लोग शौच के लिये जाया करते थे ।  गांव के पास अत्र-तत्र शौच की प्रथा नही थी । इससे गांव में गंदगी नही होता था किन्तु आज भूमि के अनाधिकृत कब्जा (बेजाकब्जा) से गांव में खुले में वह स्थान नही बच पाया जिससे गांव के समीप सड़क किनारे गलियों पर लोग शौच के लिये जाने लगे जिससे गंदगी होना स्वभाविक है ।
वर्तमान परिदृश्य से ऐसा लग रहा मानो स्वच्छता का अभिप्राय केवल शौचालय का उपयोग करना मात्र है ।  केवल खुले में शौच मुक्त गांव होने से गांव गंदगी मुक्त हो जायेगा ।  शौचलय स्वच्छता का एक अंग है न कि  एक मात्र अंग ।  आज गांव के समुचित स्वचछता पर ध्यान न देकर केवल शौचलय पर जोर देना स्वच्छता संस्कृति को पंगु कर रहा है ।  खुले में शौचमुक्त गांव-षहर बनाने के फेर में यह ध्यान नही दिया जा रहा है कि शौचालय का बनावट कैसे हो उसके ओवरफ्लो का निस्तारी कैसे हो, शौचालय प्रयोग करते समय पानी की व्यवस्था कैसे हो ? इस भीष्ण गर्मी एवं दुश्काल में पानी की व्यवस्थ कहां से हो ? इन बातों पर चिंतन किये बैगर केवल येन-केन प्रकार से शौचालय निर्माण किया जा रहा है । शौचालय निर्माण बाध्यकारी प्रतित होने पर ही ऐसे हो रहा न कि सामाजिक जाग्ररूकता के कारण ।  शौचालय निर्माण के अतिरिक्त सफाई के नाम पर कोई कार्य नही हो रहा है ।  गांव के नालियों में गंदगी अटा पड़ा है ।  लोग गलियों में कुड़े करकट आबाद गति से फेक रहे हैं, इस पर कोई अंकुष नही है । अधिकांष लोग काम चलाऊ शौचलय सड़क किनारे, गली पर ही बना रहे है जिससे उनके शौचालय से प्रवाहित पानी गली पर ही बह रहा है । शौचालय के नाम पर गलियों अतिक्रमण हो रहा है सो अलग ।
गांव-नगर की समुचित सफाई व्यवस्था की आवष्यकता है । यह उद्देष्य केवल प्रशासनिक ईकाईयों द्वारा पूरा करना तब तक संभव नही जब तक आम व्यक्ति सफाई संस्कृति को जीवन में अपनायेंगे नहीं ।  समाज में सामाजिक सरोकार से हर व्यक्ति को जुड़ने की आवष्यकता है । कई ईकाईयों द्वारा खुले में शौच पर दण्ड़ के प्रावधान किये गये है । प्रश्न उठता है अन्य गंदगी हेतु दण्ड़ की व्यवस्था क्यों नही ? उस व्यक्ति के प्रति, उस संस्थान के प्रति जो गंदगी फैला रहे हैं ।  यह भी प्रश्न उठता है उस प्रषासनिक ईकाई पर दण्ड क्यों नही जो गांव-नगर की नियमित सफाई में असफल सिद्ध हो रहे हैं ।  हर व्यक्ति, हर संस्था हर ईकाई के दायित्व निर्धारित करना होगा कि वे गंदगी न करें । तभी गंदगी दैत्य को पराजित कर पाना संभव है ।  जब तक लोगों में व्यक्तिवाद रहेगा, सामाजिक दायित्व से दूर रहेंगे तब तक यह संभव नही है । कुछ लोंगो में यह सोच विकसित हो रहा है जो भविष्य को आशान्वित करता है ।

03 May 2017

गीत-आँखी म निंदिया आवत नई हे

तोर बिना रे जोही
आँखी म निंदिया आवत नई हे
ऊबुक-चुबुक मनुवा करे
सुरता के दहरा मा
आँखी-आँखी रतिहा पहागे
तोर मया के पहरा मा
चम्मा-चमेली सेज-सुपेती
मोला एको भावत नई हे
तोर बिना रे जोही
आँखी म निंदिया आवत नई हे
मोर ओठ के दमकत रंग ह
लाली ले कारी होगे
आँखी के छलकत आंसू
काजर ले भारी होगे
अइसे पीरा देस रे छलिया
छाती के पीरा जावत नई हे
तोर बिना रे जोही
आँखी म निंदिया आवत नई हे
आनी-बानी सपना के बादर
चारो कोती छाये हे
तोरे मोहनी काया के फोटू
घेरी-बेरी बनाये हे
छाती म आगी दहकत हे
बैरी पिरोहिल आवत नई हे
तोर बिना रे जोही
आँखी म निंदिया आवत नई हे
- रमेश चौहान

02 May 2017

अर्थ स्वच्छता के समझ

//कुण्डलियां//
कोना-कोना स्वच्छ हो, स्वच्छ बने हर गाँव ।
अर्थ स्वच्छता के समझ, रम्य करें हर ठाँव ।।
रम्य करें हर ठाँव, स्वच्छता को कर धारण।
गगन तले का शौच, नहीं एकाकी कारण ।
कारण भारी एक, कुड़े करकट का होना ।
बदलें निज व्यवहार, स्वच्छ हो कोना-कोना ।।
-रमेश चौहान

01 May 2017

देश-भक्ति हा बड़ नेक हे

चौबोला छंद

हमर धरम तो बस एक हे । देश-भक्ति हा बड़ नेक हे
जनम-भूमि जन्नत ले बड़े । जेखर बर बलिदानी खड़े

मरना ले जीना हे बड़े । जीये बर जीवन हे पड़े
छोड़ गोठ तैं अधिकार के । अपन करम कर तैं झार के

अपने हिस्सा के काम ला । अपने हिस्सा के दाम ला
करना हे अपने हाथ ले । भरना हे अपने हाथ ले

बइमानी भ्रष्टाचार के। झूठ-मूठ के व्यवहार के
जात-पात के सब ढाल ला । तोड़व ये अरझे जाल ला

देश बड़े हे के प्रांत हो । सोचव संगी थोकिन शांत हो
दश्ष गढ़े बर सब हाथ दौ । आघू रेंगे बर सब साथ दौ

मनखे-मनखे एके मान के । सबला तैं अपने जान के
मया-प्रेम मा तैं बांध ले । ओखर पीरा अपने खांध ले

दश्ष मोर हे ये मान ले । जीवन येखर बर ठान ले
अपने माने मा तो तोर हे । नही त तोरे मन मा चोर हे

- रमेश चौहान

30 April 2017

वर्षो से परतंत्र है, भारतीय परिवेश

वर्षो से परतंत्र है, भारतीय परिवेश  ।
मुगलों  ने कुचला कभी, देकर भारी क्लेश ।।
देकर भारी क्लेश, कभी आंग्लों ने लूटा ।
देश हुआ आजाद,  दमन फिर भी ना छूटा  ।।
संस्कृति अरु संस्कार, सुप्त है अपकर्षो से ।
वैचारिक  परतंत्र, पड़े हैं हम वर्षो से ।।
-रमेश चौहान

29 April 2017

मोर ददा के छठ्ठी हे

मोर ददा के छठ्ठी हे,
नेवता हे झारा-झारा

कथा के साधु बनिया जइसे
मोर बबा बिसरावत गे
आजे-काले करहू कहि-कहि
ददा के छठ्ठी भूलावत गे

सपना बबा ह देखत रहिगे
टूटगे जीनगी के तारा

नवा जमाना के नवा चलन हे
बाबू मोरे मानव
मोर जीनगी ये सपना ल
अपने तुमन जानव

घेरी-घेरी सपना म आके
बबा गोठ करय पिआरा

बबा के सपना मैं ह एक दिन
ददा ले जाके कहेंव
ददा के मुह ल ताकत-ताकत
उत्तर जोहत रहेंव

सन खाये पटुवा म अभरे
चेहरा म बजगे बारा

बड़ सोच-बिचार के ददा
मुच-मुच बड़ हाँसिस
मुड़ डोलावत-डोलवत
बबा के सपना म फासिस

पुरखा के सपना पूरा करव
बेटा मोर दुलारा

छै दिन के छठ्ठी ह जब
होथे महिनो बाद
पचास बसर के लइका होके
देखंव येखर स्वाद

छठ्ठी के काय रखे हे
जब जागव भिनसारा

27 April 2017

कहाँ ले पाथे आतंकी

घनाक्षरी
कहाँ ले पाथे आतंकी, बैरी नकसली मन
पेट भर भात अउ, हथियार हाथ मा ।
येमन तो मोहरा ये, असली बैरी होही हे
जेन ह पइसा देके, खड़े हवे साथ मा ।।
कोन धनवान अउ, कोन विदवान हवे
पोषत हे जेन बैरी, अपनेच देश के ।
खोज खोज के मारव, मुँहलुकना मन ला
येही असली बैरी हे, हमरेच देश के ।।

25 March 2017

लइकापन लेसागे

चना होरा कस,
लइकापन लेसागे

पेट भीतर लइका के संचरे
ओखर बर कोठा खोजत हे,
पढ़ई-लिखई के चोचला धर
स्कूल-हास्टल म बोजत हे

देखा-देखी के चलन
दाई-ददा बउरागे

सुत उठ के बड़े बिहनिया
स्कूल मोटर म बइठे
बेरा बुड़ती घर पहुॅचे लइका
भूख-पियास म अइठे

अंग्रेजी चलन के दौरी म
लइका मन मिंजागे

बारो महिना चौबीस घंटा
लइका के पाछू परे हे
खाना-पीना खेल-कूद सब
अंग्रेजी पुस्तक म भरे हे

पीठ म लदका के परे
बछवा ह बइला कहागे

चिरई-चिरगुन, नदिया-नरवा
अउ गाँव के मनखे
लइका केवल फोटू म देखे
सउहे देखे न तनके

अपने गाँव के जनमे लइका
सगा-पहुना कस लागे

साहेब-सुहबा, डॉक्टर-मास्टर
हो जाही मोर लइका
जइसने बड़का नौकरी होही
तइसने रौबदारी के फइका

पुस्तक के किरा बिलबिलावत
देष-राज म समागे

बंद कमरा म बइठे-बइठे साहब
योजना अपने गढ़थे
घाम-पसीना जीयत भर न जाने
पसीना के रंग भरथे

भुईंया के चिखला जाने न जेन
सहेब बन के आगे


रमेश के दोहे

साथ खड़े जो शत्रु के, होते नहीं अजीज ।
शत्रु वतन के जो दिखे, उनके फाड़ कमीज ।।

राष्ट्रद्रोह के ज्वर से दहक रहा है देश 
सुख खोजे निजधर्म में राष्ट्र धर्म में क्लेष ।।

प्रेम प्रेम ही चाहता, कटुता चाहे बैर ।
प्रेम प्रेम ही बाँटकर, देव मनावे खैर ।

अभिव्यक्ति के नाम पर, राष्ट्रद्रोह क्यों मान्य 
सहिष्णुता छल सा लगे, चुप हो जब गणमान्य ।।

तुला धर्म निरपेक्ष का, भेद करे ना धर्म ।
अ, ब, स, द केवल वर्ण है, शब्द भाव का कर्म ।
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