मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं,
भेद-भाव की दरिया को,
पाटने की कोशिश में,
सूरज के घर में चाॅंद का,
संदेशा लेकर जाता हॅूं, हाॅं,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।
खुशियों को ढ़ूंढ़ने निकला हॅूं,
मिल भी गयी दुखदायी खुशी,
दुखदायी खुशी के चक्कर में,
हसीन गम को भूल जाता हॅूं।, हाॅं,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।
ऐषो-आराम की जिंदगी मिली है,
आराम से सोता पर क्या करूॅं,
पहले हजारों अर्धनिद्रा से ग्रसित,
बांधवों को सुलाता हॅूं, हाॅं,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।
कार्यों को करने की प्रेरणा दी मैंने,
कई सलाह भी दिये मैंने,
पर खुद काम से जी चुराता हॅूं।,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।
जिसकी मदद से पहुंचा इस मुकाम पे,
वही मेरे हाथ जोड़े खड़ा है,
मैं खुश मूढ़! एहसानों का बदला,
इस तरह चुकाता हॅूं, हाॅं,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।
तुम्हारी दी इज्जत से रहा हॅूं।
दिखावे की जिंदगी भी है मेरे पास,
अपमान भी करता हॅूं तुम्हारी,
झूठे अहम के वश में,
अपनी हैसियत भूल जाता हॅूं।
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं,
दुनिया में शिकायतोंका,
सिलसिला चलता ही है,
मैंने बहुत वश शिकायतें की हैं तुम्हारी,
अब माफीनामा भी फरमाता हॅूं, हाॅं
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।।
03 December 2017
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