अठारहवीं शताब्दी मे आज से लगभग 150 साल पहले ओंकारपुरी गोस्वामी यहां के मालगुजार थे,उनके मुख्तियार थे ठाकुर राम वर्मा ।
एक बार ठाकुरराम को मालगुजार की हवेली में सोते हुए स्वप्न आया कि वह ग्राम बुचीपुर में कथित हवेली के सामने माँ महामाया की मूर्ति की स्थापना करें।
सुबह सपने की बात को मुख्तियार ने मालगुजार को बतायी बस मालगुजार और मुख्तियार दोनो की सहमति हुर्इ और तत्काल नवागढ़ जिसकी दूरी ग्राम से लगभग 16 कि.मी. है, जहां तालाब के अंदर देवी मां महामाया की मूर्ति थी, को लेने सुंदर मुहूर्त निकालकर दोनो भक्त नवागढ़ आये, मूर्ति को ले जाने का एक मात्र साधन उस जमाने में बैल गाड़ी था ।
पूजा अर्चना के पश्चात मूर्ति को गाड़ी में आरूढ़ किए फिर उनका काफिला बूचीपुर के लिए कूच किया ।
रास्ते में मूर्ति की गाड़ी खड़ी हो जाती थी । वहां उनकी पूजा-अर्चना और बकरे की बली देते पुन: वह गाड़ी वहां से पलायन करती, कुछ दूर पर फिर रूक जाती, फिर वहां नारियल हूम देते, बकरे की बली देते ।
इस तरह बूचीपुर पहूंचते-पहुंचते छः आखा नारियल (720 नारियल) और तीन दौंरी बकरा (36 बकरा) के बलिदान एवं पूजा-अर्चना के पश्चात मां महामाया ग्राम बूचीपुर मे अपनी स्थापित होने की जगह मे पधारीं । फिर सुंदर समय पर महामाया की प्राण प्रतिष्ठा की गई ।
भक्त जिन्हे विश्वास है, लगन है, श्रद्धा है, चैत्र और कुंवार दोनो माह में आज तक निरंतर मनोकामना ज्योति प्रज्जवलित किए जाते है ।