07 February 2017

मनोज श्रीवास्तव रचित- साहित्य का चहेता

काव्य सेवक का सहयोगी प्रणेता नहीं,
मेरे नगर में साहित्य का कोई चहेता नहीं।
मैं तो समर्पित हूँ आलोक बिखेरने हर पल,
अफ़सोस! मेरी कृति का निःशुल्क क्रेता नहीं।
सुरा-सुंदरी में डूबे को कैसे दिखाऊं रास्ता,
धर्म-कर्म के मंत्रों का एक भी ध्येता नहीं।
कलियुग को भी दे सकता हूँ चुनौती पर,
किसी के स्मरण मात्र में भी वह त्रेता नहीं।।
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