छत्तीसगढ़ अपने नाम के ही साथ ‘छत्तीस‘ गढ़ को समेटा हुआ है । राजतंत्र के समय छत्तीसगढ़ के जीवन दायनी षिवनदी के उत्तर दिषा में 18 एवं दक्षिण दिषा में 18 गढ़ हुआ करता था । उत्तर दिषा के गढ़ों की राजधानी रतनपुर एवं दक्षिणा दिषा की राजधानी रायपुर था । षिवनादी के उत्तर दिषा में रतनपुर राजधानी के अंतर्गत एक गढ़ था जिसका नाम ‘नरवरगढ़‘ था । ऐसी मान्यता है कि यह नाम उस समय के तत्कालिक राजा नरवर साय के नाम पर पड़ा होगा । कलान्तर में इसी ‘नरवरगढ़‘ को ‘नवागढ़‘ के नाम से जाने जाना लगा । वर्तमान में यह नवागढ़ छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिला मुख्यालय से उत्तर दिषा में ‘बेमेतरा-मुंगेली‘ मार्ग पर 25 किमी की दूरी पर स्थित है । नवागढ़ में पहले ‘छै आगर छै कोरी‘ अर्थात 126 तालाब बताया जाता है किन्तु वर्तमान में नही है किन्तु आज भी हर मोहल्लें में तालाब दृश्टिगोचर है, इसिलिये कहा जाता है-
‘‘हमर नवागढ़ के नौ ठन पारा,
जेती देखव जल देवती के धारा ।‘‘
नरवर साय की दो पत्नियां थी । मानाबाई एवं भगना बाई । राजा ने अपनी पत्नियों के नाम पर तालाब बनवाये हैं जो क्रमषः मानाबंद एवं भगना बंद के नाम से आज भी प्रसिद्ध है । नवागढ़ में अनेक मंदिर हैं, जिनमें अधिकांष प्राचिन हैं । नवागढ़ के पूर्व दिषा में चांदाबन स्थित माँ षक्ति का मंदिर, षंकरनगर में स्वयंभू महादेव का मंदिर, पष्चिम में मां महामाया, माँ षारदे का मंदिर, उत्तर दिषा में भैरव बाबा का मंदिर, जुड़ावनबंद के समीप लक्ष्मीनारायण का मंदिर, दक्षिण दिषा में बैरम बाबा का मंदिर, षंकरजी का मंदिर, मध्यभाग में राममंदिर, लखनी मंदिर, दक्षिण मुखी हनुमान मंदिर, श्रीषमिगणेष मंदिर, ठाकुर देव का मंदिर इन प्रमुख मंदिरो के अतिरिक्त और कई मंदिरें हैं । श्रीरामनाथ ध्रुव सेवा निवृत्त पटवारी, जो स्थानीय इतिहास संग्रह करता के रूप में जाने जाते हैं के अनुसार 586 ईसवी के आसपास नरवर साय द्वारा माँ महामाया, गणेष मंदिर, भैरव बाबा, हनुमान मंदिर एवं बुढ़ामहादेव मंदिर का निर्माण कराया गया है । किन्तु चौबे मालगुजार परिवार के श्री सुरेन्द्र कुमार चौबे सेवा निवृत्त षिक्षक इन मंदिरों का निर्माण 14 वीं षताब्दी में मानते हैं । इन मंदिरों के संबंध में कई-कई जनश्रुतियां प्रचलित रही हैं । जिनमें प्रमुख मंदिर इस प्रकार हैं-
माँ महामाया मंदिर- माँ महामाया को नरवरगढ़ राजा के कुल देवी के रूप माना जाता है । यह मंदिर मानाबंद के पष्चिमी तट पर स्थित है । माँ की प्रतिमा लगभग 6 फिट की है । गाँ का मुख भव्य प्रदिप्तमान है । बुजुर्ग बतलातें हैं कि पूर्व में व्यक्ति माँ से आँख मिलाने से भय खाते थे क्योंकि माँ का रूप् तेजवान है । आज छत्तीसगढ़ी परिवेष में माँ का श्रृंगार माँ के भक्तों को अनायाष ही अपनी ओर आकर्शित करते है । चूंकि प्राचिन मंदिर आज विद्यमान नही है इसलिये मंदिर षिल्प के आधार पर निर्माण काल का ठीक-ठीक निर्धारण नहीं किया जा सकता । मान्यता है कि माँ की प्रतिमा वही है यद्यपी मंदिर के कई-कई जीर्णोद्धार में मंदिर का कलेवर परिवर्तित हो चुका है । गांव के बुजुर्ग बतलाते हैं कि 1974 में इस मंदिर का जीणोद्धार कराने मूर्ति को हटाने की आवष्यकता हुई कई लोग एक साथ मूर्ति को हटाने प्रयास किये किन्तु मूर्ति टस से मस नही हुई । फिर 11 विप्र दुर्गासप्तषती का एक साथ पाठ किये तब जाकर मूर्ति हल्का हुआ और उसे वहां से हटाया जा सका । एक मान्यता के अनुसार नवागढ़ की महामाया एवं रतनपुर की महामाया एक ही समय के हैं । रतनपुर एवं नवागढ़ महामाया में एक साम्य है । महामाया रतनपुर के समीप भी तालाब है एवं महामाया नवागढ़ के पास भी तालाब है । एक जन श्रुति के अनुसार नवागढ़ के तालाब से रतनपुर के इस तालाब तक एक सुरंग है । जिस प्रकार रतनपुर महामाया के संबंध में जनश्रुति है कि तीन बहनों में एक बहन काली के रूप में कलकत्ता में निवास करती उसी प्रकार मान्यता है कि नवागढ़ के महामाया के तीन बहनों में एक ‘गोबर्रा दहरा‘ (दामापुर, जिला कबीरधाम) में एवं एक समीपस्थ ग्राम बुचीपुर में विराजित है । बुचीपुर माँ महामाया संस्थान इस बात को स्वीकार करती है बुचीपुर माँ महामाया को नवागढ़ से लाया गया है । नवागढ़ महामाई अपने भक्तों के बीच मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी के रूप में विख्यात है । भक्त प्रेम से माँ को ‘बुढ़ीदाई‘, ‘नवगढ़िन दाई‘ भी पुकारते हैं ।
श्रीषमिगणेष मंदिर- नवागढ़ के हृदय स्थल पर भगवान गणेष का एक मंदिर व्यवस्थित है । इस मंदिर के निर्माण के संबंध में मान्यता है कि संवत 646 में इस मंदिर का निर्माण तांत्रिक विधि से कराई गई थी । इस मंदिर के निर्माण के संबंध दो प्रकार की विचार धारा प्रचलित है, एक विचार के अनुसार इस मंदिर का निर्माण नरवरगढ़ के राजा नरवरसाय द्वारा कराया जाना मानते हैं तो दूसरी मान्यता के अनुसार इस मंदिर का निर्माण गोड़वाना राज के पूर्व के राजा जो भोसले (मराठी) परिवार द्वारा कराया गया मानते हैं । इस संबंध में श्री सुरेन्द्र कुमार चौबे तर्क देते हुये कहते हैं कि चूंकि गणेष मराठों का ईश्ट देव है एवं गोड़ राजा मराठी राजा को पराजित कर यहां अपना अधिपत्य स्थापित किये थे इसलिये इस मंदिर का निर्माण का श्रेय मराठा परिवार को देना न्याय संगत लगता है । 6 फीट के एक पत्थर पर भगवान गणेषजी को पद्मासन मुद्रा में उकेरा गया है । इस मंदिर के दक्षिण भाग में एक अश्टकोणीय कुँआ विद्यमान है । इस मंदिर के समीप एक षमि का वृक्ष है । इसी कारण इस मंदिर को ‘श्रीषमि गणेष मंदिर‘ कहा जाता है । गणेष मंदिर एवं षमिवृक्ष का यह दुर्लभ संयोग पूरे विष्व में केवल तीन स्थानों पर बतलाया जाता है । प्रसिद्ध धार्मिक पत्रिका ‘कल्याण‘ के ‘गणेष‘ अंक में इस मंदिर का उल्लेख मिलता है । मान्यता के अनुसार इस स्थान पर कोई गणेष भक्त संत जीवित समाधी लिये थे । मंदिर के षिलालेख उल्लेखित जानकारी के अनुसार 1880 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार महाराश्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार द्वारा कराया गया । गर्भगृह को छोड़ कर षेश मंदिर का पुनः जीर्णोद्धार ‘सिद्ध विनायक श्रीषमि गणेष मंदिर सेवा संस्थान‘ द्वारा 2013 में कराया गया है । जिससे मंदिर एक नये आकर्शक कलेवर में पर्यटकों को लुभाने में सफल रहा है ।
राममंदिर-नवागढ़ के पूर्व दिषा में सुरकी तालाब के तट पर राममंदिर मठ है । इस परिकोटा में एक साथ रामजानकी मंदिर एवं राधाकृश्ण मंदिर व्यवस्थित है । मंदिर के महंत श्रीमधुबन दास वैश्णव के अनुसार वह इस मंदिर के आठवीं पीढ़ी के महंत हैं । लगभग 300 वर्श पूर्व इस मंदिर का निर्माण हुआ है । इस संबंध में एक जनश्रुति प्रचलित है कि इसी स्थान पर केवल कृश्ण मंदिर बनाने की योजना थी । कृश्ण मंदिर का निर्माण लगभग पूरा होने को था उसी समय राजस्थान जयपुर के कुछ मूर्तिकार मूर्ति बेचते एक दिन रात्रि होने पर विश्राम के उद्देष्य से यहां तालाब किनारे ठहरे दूसरे दिन जब ओ लोग यहां से जाने के लिये तैयार हुये तो राम-जानकी की प्रतिमा अपने स्थान पर अडिग हो गया । लगातार तीन दिन तक मूर्ति ले जाने का प्रयास हुआ किन्तु मूर्ति अचल हो गया थक-हार कर मूर्ति को इसी स्थान पर छोड़ना पड़ा इस चमत्कार से चमकृत होकर, कृश्ण मंदिर बनाने वाले लोग उसी मंदिर पर रामजानकी को स्थापित किये । उस मंदिर के लिये लाये गये कृश्ण-राधा का प्रतिमा आज भी रामजानकी प्रतिमा के बगल में स्थापित है । कुछ वर्शो बाद इस राममंदिर के बगल में दूसरा मंदिर बनाकर कृश्ण-राधा की नई मूर्ति स्थापित की गई । इस मंदिर में 700 एकड़ कृशि भूमि दान से प्राप्त हुआ था । जिसमें का एक बड़ा भाग षिलिंग में निकल गया कुछ भाग महंतों के द्वारा बेच दिया गया वर्तमान में इस मंदिर के पास 10 एकड़ कृशि भूमि षेश है । इस मंदिर में विभिन्न मठों के संतो का आगमन होता रहा है । 20 सदी के पूर्वाद्ध में यहां विद्यापीठ संचालित था जिसमें बच्चों को संस्कृत की षिक्षा दी जाती थी । बाद में गरीब बच्चे इस मंदिर में रह कर षासकीय विद्यालय में अध्ययन करते थे । यह मंदिर एक सामाजिक केन्द्र के रूप में उभरा जहां गांव के लोग बैठ कर अध्यात्मिक एवं सामाजिक चिंतन किया करते थे । ये परम्परा कमोबेस आज भी बरकरार है ।
लखनी मंदिर-लक्ष्मीजी को ‘लखनी देवी‘ के रूप में गांव के सुरकी तालाब के पास स्थापित किया गया है । यह मंदिर माँ महामाया मंदिर के समकालीन है । लखनी देवी की प्रतिमा लगभग 3 फीट ऊँची है । प्रतिमा अत्यंत मनोहारी है । इस मंदिर की मान्यता रही है कि इस देवी के पूजन करने वाले निःसंतान दम्पत्ती को निष्चित ही संतान सुख की प्राप्ति होती है । ऐसा माना जाता है कि लक्ष्मीजी को लखनी नाम से नवागढ़ में एवं रतनपुर में ही स्थापित किया गया है । लखनी मंदिर के समीप एक कुँआ है जो पहले पूरे गाँव के लिये पे जल का स्रोत रहा ।
हनुमान मंदिर-नवागढ़ के मध्य भाग में दक्षिणमुखी हुनमानजी स्थापित है । इसका निर्माण भी मां महामाया के निर्माण के समय का ही बताया जाता है । बाद में इस मंदिर के पास ग्राम पंचायत का निर्माण हुआ जहां आज नगर पंचायत संचालित है । हनुमान भक्त इस मंदिर को अत्यंत सिद्ध मंदिर निरूपित करते हैं । इस मंदिर के पास साधु समाधी का होना बतलाया जाता है । मान्यता के अनुसार इस स्थान पर कोई हनुमान भक्त संत जीवित समाधी लिये थे ।
भैरव बाबा का मंदिर- माँ महामाया मंदिर से उत्तर दिषा की ओर लगभग 1 किमी की दूरी पर भैरव बाबा का मंदिर स्थित है । वर्तमान में इस स्थान पर न वह प्राचिन मूर्ति है न ही प्राचिन मंदिर । किन्तु मान्यता है कि माँ महामाया निर्माण के आस-पास के वर्शो में भैरव बाबा का मंदिर यहां था । प्रमाण के रूप में गांव में भैरव भाठा नाम से से एक निरजन स्थान है जहां पर ऊँचे पीपल वृक्ष के नीचे भैरव बाबा के खण्ड़ित प्रतिमा रखा हुआ है । इसी के समीप एक नवीन भैरव बाबा का मंदिर बनवाया गया है जिसमें नई मूर्ति स्थापित है । गांव में महामाया एवं भैरव बाबा का संयोग इसे पुनः रतनपुर से ही जोड़ता है ।
स्वयंभू बुढ़ा महादेव- गांव के पूर्व दिषा में मांगनबंद तालाब के तट पर स्वयंभू महादेव का मंदिर है । इस मंदिर में बाबा भोलेनाथ का षिवलिंग जलहरी के साथ उसी प्रकार षोभायमान है जैसे बनारस का विष्वनाथ । ऐसी मान्यता है कि नरवर साय के काल में ही इस मंदिर का निर्माण कराया गया था । पहले इस मंदिर में केवल षिवलिंग ही स्थापित था बाद में षिवपरिवार के रूप में माता पार्वती एवं गणेषजी की प्रतिमा स्थापित कराई गई । इस मंदिर का जीणोद्धार दो से अधिक बार हो चुका है । सावनमास में यहां भक्तों का ताता लगा रहता है । महाषिवरात्रि के दिन इस मंदिर परिसर पर मेला भी लगता है ।
मैहरवासनी मां षारदे का मंदिर-महामाया मंदिर के पष्चिम दिषा में जहां पर पहले राजा नरवर साय का किला हुआ करता था । जिसके अवषेश के रूप 20 फीट का टिला था इसी टिले पर आज मैहर वासनी माँ षारदे का मनोहारी प्रतिमा स्थापित है । इसे मैहर वासनी माँ षारदे इसलिये कहा जाता है कि यह प्रतिमा मैहर के माँ षारदे की अनुकृति है । यह एक नवीन मंदिर है जिसके संबंध में आज के हर अधेड़ उम्र के लोग जानते हैं । 1974 के आसपास श्री बिश्णु प्रसाद मिश्रा जो स्वास्थय विभाग में कार्यरत था । एक दिन संध्या अपने मित्रों के साथ बैठे थे अचानक उनको कुछ अनुभूति हुई, उनका षरीर कँपने लगा, उनके साथी मित्र कुछ समझ पाते इनके पूर्व ही श्री मिश्राजी लगभग भागते हुये गांव के टिले के ऊपर जाकर बैठ गये । मित्र भी उनके पिछे-पिछे हो लिये । इनको भागते हुये देख गांव के कुछ अन्य लोग भी टिले में इक्ठ्ठा हो गये । श्री मिश्राजी अपने आप को वहां माँ षारदा होना बतलाया । ध्यान देने योग्य बात है कि श्री मिश्राजी को इनसे पूर्व किसी प्रकार देवी सवार नही हुआ था । वह यहां माँ का मंदिर बनाने की बात कही । जिसे गांव वाले स्वीकार कर लिये । इसके बाद ही वह षांत हुये । इस घटना के बाद से श्री मिश्राजी कई वर्शो तक दोनों नवरात में उसी स्थान पर माँ षारदे के तैल चित्र लेकर बैठा करते थे । कुछ वर्शो बाद पूरे गांव के सहयोग से वहां षारदा मंदिर का निर्माण किया गया ।
इन मंदिरों के अतिरिक्त और कई छोटे-बड़े मंदिर है जिनका अपना महत्व है । यहां एक बावली भी जीर्ण-षिर्ण स्थिति में अव्यस्थित है । इस बावली के संबंध में कहा जाता है कि इसमें अथाह जल है । इसके जल द्वार बंद करके रखा गया है । इस प्रकार नवागढ़ न केवल धार्मिक दृश्टिकोण से अपितु पुरातात्विक, ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है ।
-रमेषकुमार सिंह चौहान