जिंदा रहने पर,
फटकारती है,
मेरी आत्मा,
मुझे रोज,
धिक्कारती है,
कहती है-
क्यों जीता हूँ मैं,
कीड़े-मकोड़े-पिस्सुओं,
का जीवन,
न कोई मंजिल,
न उद्देश्य,
बेजुबानों की तरह,
खाये-पीये
और मर गए,
क्या अर्थ है!
ऐसे जीवन का,
जिसे तुम केवल,
ढो रहे हो,
मैं निरुत्तर,
आज तक,
मेरे पास,
अपनी आत्मा को,
देने के लिए,
कोई जवाब नहीं,
पर मन,
भीतर ही भीतर,
कचोटता है,
काश मेरी मृत्यु भी,
होती उस,
विभूति की तरह...
17 August 2018
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