ह्रदय बड़ा विशाल था,
जो देश पर निहाल था,
युग पुरूष महान था,
विपक्ष को गुमान था।
लिखूं कि तुझपे न लिखूं,
लिखूं भी तुझपे क्या लिखूं,
तू स्वयं में ही विराट था,
तू विश्व का ललाट था,
तू देश का रुआब था,
तू प्रश्न भी जवाब था,
उदयाचल से अस्ताचल तक,
सिन्धु से हिमाचल तक,
तेरी छवि है निहारती,
भारत माँ के आँचल तक,
तू व्यक्ति में विशाल था,
बहुविधा का जाल था,
रण में भी तू ढाल था,
निशा में तू मशाल था,
सुख-समृद्धि का त्यक्ता भी,
संकेत में तू व्यक्ता भी,
वक्ता भी प्रवक्ता भी,
पक्ष में अधिवक्ता भी,
तू देश का सौजन्य था,
साहित्य तुमसे धन्य था,
तू देश पर विभक्त था,
तू मोह से विरक्त था,
तू सत्यता का भक्त था,
तू प्रचण्ड भी सशक्त था,
मेरी कलम भी लिखती,
फिर भी नहीं है सीखती,
स्वआत्मा है चीखती,
मुझे बड़ी है धिकती,
राष्ट्रमान जो रहा,
प्रेरणागान जो रहा,
दुख को दुख है हो रहा,
काल भी है रो रहा,
कृति वही किया तू जो,
स्मृति वही दिया तू जो,
जीवन वही जिया तू जो,
मरण वही मरा तू जो।
16 August 2018
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मनोज श्रीवास्तव जी की रचनाएं
» युगपुरूष को सादर श्रद्धांजलि