स्वस्थ पीढ़ी के निर्माण में हमारी भूमिका
आज हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं और अत्याधुनिक भी हो चुके हैं किंतु जब हम आज की पीढ़ी की बात करते हैं तो प्रायः हम उनसे असंतुष्ट होते हैं। हमें इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि हम आज की पीढ़ी से असंतुष्ट क्यों होते हैं? सर्वप्रथम हमें अपने क्रियाकलापों और दिनचर्या पर चिंतन करना पड़ेगा कि हम अपनी पीढ़ी के लिए कितना समय निकालते हैं?
आज हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुके हैं और अत्याधुनिक भी हो चुके हैं किंतु जब हम आज की पीढ़ी की बात करते हैं तो प्रायः हम उनसे असंतुष्ट होते हैं। हमें इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि हम आज की पीढ़ी से असंतुष्ट क्यों होते हैं? सर्वप्रथम हमें अपने क्रियाकलापों और दिनचर्या पर चिंतन करना पड़ेगा कि हम अपनी पीढ़ी के लिए कितना समय निकालते हैं?
बात बचपन से आरंभ करते हैं, जब बालक छोटा होता है तो हम उस पर अधिक ध्यान देते हैं। उसकी एक-एक हरकतों पर ध्यान रखते हैं किंतु बालक जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, हमारा ध्यान उसकी हरकतों पर से कम होता जाता है जबकी ध्यान देने की सबसे अधिक आवश्यकता बच्चों की बढ़ती उम्र पर ही होती है।
जब बच्चा शिुशु कक्षा में रहता है तो हम उसके बस्ते, पहनावे, पानी के डिब्बे, टिफिन पर खास ध्यान रखते हैं और उसे स्कूल भेज देते हैं। यहां पर यह बालक के व्यवहार में आ जाता है। वह कुछ दिनों में खुद इन सामग्रियों को अपने व्यवहार में ले आता है और अगर कोई सामग्री छूट जाए तो वह स्वयं याद कर उसकी पूर्ति हेतु प्रयत्न करता है।
जब बच्चा प्राथमिक कक्षा में पहुचता है तो वह पहले कि अपेक्षा अधिक सयाना हो जाता है। विद्यालय के समय-सारणी का ध्यान रखता है। स्वयं ही तैयार हो जाता है तथा अपने अध्यापन सामग्रियों को स्वयं ही सुव्यवस्थित कर लेता है। छोटे-मोटे निर्णय भी स्वयं ले-लेता है।
वही बालक जब मिडिल स्कूल में प्रवेश करता है तो अपने कार्य के प्रति अधिक सजग हो जाता है और प्रायः अपने सारे कार्य स्वयं करता है। यहां पर मिडिल स्कूल के बालक से हमारा ध्यान प्रायः हटना शुरू हो जाता है, समझते हैं कि अब बालक बड़ा हो गया है, उसे हमारी आवश्यकता नहीं है और हम उसके कार्याें और व्यवहार के प्रति निश्चिंत हो जाते हैं जबकि यही वह समय होता है जब हमारी आवश्यकता उस बालक को अधिक होती है।
इसी उम्र में वह मित्रों की संगति की शुरूवात करता है जिसका पूर्ण प्रभाव उसके आगे के जीवन काल पर पड़ता है। यह वह उम्र होता है जहां पर वह सही और गलत में ज्यादा अंतर समझ नहीं पाता है और गलती की शुरूवात करता है। यहां तक पहुचकर बालक की मनःस्थिति दो प्रकार की हो जाती है, यदि वह सही व गलत में से सही मार्ग का निर्णय कर पाता है तो वह सही दिशा की ओर अग्रसर होता जाता है किंतु वह आगे भी सही मार्ग पर चलेगा इस पर संदेह बना रहता है क्योंकि इस उम्र में सही निर्णय लेना अत्यंत कठिन होता है। और दूसरी स्थिति यह कि बालक गलत संगति में पड़कर निरंतर बुराई की ओर अग्रसर होने की चेष्टा करता है।
उपर्युक्त स्थिति ही बालक की आगे की स्थिति निर्धारित करता है। यहीं पर हमें ध्यान देने की अधिक आवश्यकता होती है। इसी तारतम्य में यह बात आती है कि आजकल ट्यूशन का चलन एक फैशन का रूप धारण करता हुआ नजर आ रहा है जबकि ट्यूशन की आवश्यकता कमजोर बालकों के लिए होती है किंतु आज प्रतियोगिता की दृष्टि से सभी बच्चे इस ओर अग्रसर हो रहे हैं और पालक भी अपने बच्चे के भविष्य के लिए उन्हें यह सुविधा प्रदान कर रहे हैं किंतु यहीं पर सबसे ज्यादा आवश्यकता होती है कि हम उस बालक पर ध्यान रखें कि जो ट्यूशन पढ़ने गया है, वह ट्यूशन भी गया है अथवा नहीं? ट्यूशन को छोड़कर कहीं अन्यत्र बुरी संगत में तो नहीं गया? ट्यूशन में वह पढ़ाई कर पा रहा है? क्या उसे शिक्षक द्वारा समझाये गये विषये समझ में आ गये? वह पढ़ाई से भाग तो नहीं रहा है? क्या उसके मित्र उसे पढ़ाई के लिए प्रेरित करने वाले हैं अथवा उसे खेल में उलझाने वाले हैं?
इन सभी बातों पर अत्यधिक ध्यान देने की आवश्यकता होती है क्योंकि हम प्रायः बालक को ट्यूशन भेजकर निश्ंिचत हो जाते हैं और हमारा बालक दिशा भटक जाता है। उसी प्रकार बालक के स्कूल जाने पर भी हमें सजग रहने की आवश्यकता होती है। वह स्कूल जा रहा है अथवा नहीं, गृहकार्य पूर्ण कर रहा है अथवा नहीं, उसके मित्रों का वातावरण सही है अथवा नहीं, स्कूल से आने के बाद आपने उसके स्कूली दिनचर्या एवं पिरेड के बारे में उससे पूछा या नहीं, इन बातों की ओर हमें गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि प्रायः बालक के स्कल जाने पर हम निश्ंिचत हो जाते हैं तथा बालक के कार्यव्यवहार की जानकारी हमें नहीं होती है।
बालक अपने इन्हीं कार्यकलापों से गुजरते हुए हाईस्कूल हायरसेकंडरी और महाविद्यालय का सफर तय करता है और आज की पीढ़ी बनकर वह हमारे सामने खड़ा हो जाता है तब उसकी कमियों पर हम खीझ जाते हैं जिन कमियों का कारण कहीं न कहीं हम होते हैं।
यदि हम उपर्युक्त बातों पर गौर करते हैं तो आज की पीढ़ी स्वयमेय संस्कारवान् बन सकती है उसे पृथक संस्कार देने की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि संस्कार को हमने उसके नींव में डाल दिया होता है। बालक के हर कार्य और व्यवहार पर हमारी सजगता ही उसके भविष्य को सही दिशा में लेजा सकती है और इस तरह ही वर्तमान पीढ़ी का स्वस्थ निर्माण होगा।