08 February 2017

मनोज श्रीवास्तव रचित - भरभरी

अंतस के भरभरी
घर के बड़े टूरा,
निकाल के नौ इंची छूरा,
कहत हे-ददा गो 50 म,
काम नई चलय,
निकाल ले तैं पूरा-पूरा,
छोटे टूरा घलो आके,
माखुर मल के फाॅंकथे,
अउ चिल्ला के कहिथे-डोकरा!
मैं गल्लारा संग बिहाव करहूॅं,
अउ ओखरे संग जीहूॅं,
भले अकेल्ला मरहूॅं,
त ओखरे संग मोर बिहाव,
करबे कहिके आत हॅंव,
करारी गोठ गोठियादे,
नहीं तो महूॅं घर ले जात हॅंव,
तहाॅं ले खात-खात मिक्चर,
आगे ओखर नाती,
मूंग म दरेबर छाती,
नाती कहत हे-बबा,
जा भंइसा ल दूसर करा धोवाले,
गरम भात ल मोला दे,
बासी तैं खाले,
बेटी तक आके कहिथे-बाबू,
मैं कब तक ले बनी म जाहूॅं,
मैं हर कमाके लांव,
अउ तूमन बइठे-बइठे खाहू!
टूरा-टूरी अउ नाती हर तो,
डोकरा ल बोइर कस झर्रा डरिस,
ओतको म डोकरी हर आके,
अपन अंतस के भरभरी ल,
बर्रा डरिस,
डोकरी कहिस-डोकरा!
कब तक ले मने-मन गुनबो,
चल वानप्रस्थाश्रम जाबो,
के बाॅंचे हे तेला अउ सुनबो,
इहाॅं न कोनो गुड्डू हे,
न कोनो मुनिया हे,
कलियुग हर राजा ए,
मतलब के दुनिया हे।
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